जिस प्रकार भगवान् वेद निरस्त समस्तपुंदोषशंकापंककलंकावकाश तथा भगवन्निश्वास होने से भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव आदि दूषणों से सर्वथा दूर तथा भगवान् की सत्ता में परमप्रमाण और भगवद्रूप ही हैं उसी प्रकार वेदार्थ के उपबृंहण रूप पुराण, संहिता एवं रामायण, महाभारत में कहे हुए मंत्रद्रष्टा महर्षियों के वाक्य भी वेद ही की भाँति परम प्रामाणिक हैं। इतना अन्तर अवश्य है कि वेदों में स्वतः प्रामाण्य है तथा स्मृति, पुराण, इतिहास आदि में परतः प्रामाण्य है अर्थात् स्मृति आदि का प्रामाण्य वेदसापेक्ष है और वेदों के प्रामाण्य में किसी की कोई अपेक्षा नहीं है। पर जैसे वेद स्वयं की कृपा से ही समझ में आ सकते हैं उन पर मानव की बुद्धि का कोई बस नहीं चलता उसी प्रकार पुराण आदि भी अपनी बुद्धि के बल पर नहीं समझे जा सकते। वे तो अपनी अहैतुकी अनुकम्पा से ही साधकों को कभी-कभी अपना मर्म बता देते हैं। इसका एक अनुभव मुझे अभी-अभी अर्थात् ८-९-९८ की ब्रह्मवेला में हुआ। श्रीरामरक्षास्तोत्र का प्रायः बहुतेरे आस्तिक जन निरन्तर पाठ करते हैं और मुझे भी श्रीरामरक्षा का पाठ करते चालीस वर्ष हो गये परन्तु श्रीरामरक्षास्तोत्र के अन्तिम श्लोक का लाखों प्रयत्न करने पर भी मुझे अब तक अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया। यह श्लोक वेदव्यास विरचित पद्मपुराण का है। इसकी कथा इस प्रकार है— एक बार भूतभावन भगवान् शंकर ने अपनी प्राणवल्लभा पार्वती जी से अपने ही साथ भोजन करने का अनुरोध किया। भगवती पार्वती जी ने यह कहकर टाला कि वे विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर रही हैं। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके शिवजी ने जब पुनः पार्वती जी को बुलाया तब भी पार्वती जी ने यही उत्तर दिया कि वे विष्णुसहस्रनाम के पाठ के विश्राम के पश्चात् ही आ सकेंगी। शिव जी को शीघ्रता थी। भोजन ठण्डा हो रहा था। अतः भगवान् भूतभावन ने कहा- पार्वति! राम राम कहो। एक बार राम कहने से विष्णुसहस्रनाम का सम्पूर्ण फल मिल जाता है। क्योंकि श्रीराम नाम ही विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है। इस प्रकार शिवजी के मुख से ‘राम’ इस दो अक्षर के नाम का विष्णुसहस्रनाम के समान सुनकर ‘राम’ इस द्व्यक्षर नाम का जप करके पार्वती जी ने प्रसन्न होकर शिवजी के साथ भोजन किया।